Sindbad Travels-19 सिंदबाद ट्रैवल्स-19

Sindbad Travels-19

England-7

2nd trip to England

Birmingham

सिंदबाद ट्रैवल्स-19

इंग्लैंड-7

इंग्लैंड की दूसरी यात्रा

बर्मिंघम

अपनी पहली विदेश यात्रा के बाद जब मैं भारत लौटा तो बहुत से देशों की यात्रा से बहुत सारे अनुभव बटोर चुका था।जो ऑर्डर लेकर आया था उनकी सप्लाई करने में बहुत कुछ सीखा।फ़िरोज़ाबाद में उस समय विदेशी मुद्रा के खाते नहीं होते थे तो अपनी फ़िरोज़ाबाद वाली बैंक की ही आगरा की ब्रांच में खाता खोला था।उस बैंक के अधिकारियों ने ही इनवॉइस,
पैकिंग लिस्ट, बिल ऑफ एक्सचेंज आदि कैसे बनाते हैं ये सिखाया।हमारे देश की एक खास बात ये है कि सरकारी सीट पर कैसा अधिकारी बैठा है कानून,व्यवस्था और जनता की मदद उस बात पर निर्भर करती है।बैंक में उस समय बहुत अच्छे लोग थे तो उन्होंने मेरी ही नहीं अपितु अपने सभी कस्टमर्स की खूब मदद की और आगे चल कर उसी बैंक में जब एक सनकी और गड़बड़ किस्म के अधिकारी आये तो उन्होंने मेरे व्यापार में नुकसान पहुँचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी और कमाल इस बात का था कि बैंक के उच्चाधिकारी सदैव अपने मातहतों की ही सुनते रहे।खैर अभी लिखने का विषय यह नहीं है,यहाँ मेरा इस बात के जिक्र का आशय केवल इतना था कि हमारे देश के कायदे कानून इतने फ्लेक्सिबल हैं कि उनको सीट पर बैठा व्यक्ति अधिकतर मामलों में अपने मनोनुकूल चला लेता है।

1994 में जब मैंने पहली बार ट्रेड फेयर में दिल्ली प्रगति मैदान की यूपी पैवेलियन में भाग लिया तो उसी समय भारत की एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल फॉर हैंडीक्राफ्ट्स(EPCH) ने भी अपने व्यापार मेले की शुरुआत की थी।हम लोग जब यूपी पैवेलियन से प्रगति मैदान के हॉल नम्बर 18 में लगे हस्तशिल्प के मेले को देखने गए तो मानो आंखें ही चौंधिया गयीं।इस किस्म का बहुत अच्छी तरह से व्यवस्थित ढंग से आयोजित ऐसा फेयर मैंने पहले कभी देखा नहीं था और अगले वर्ष से मैंने भी उसमें भाग लेना आरम्भ कर दिया।हाँ तो मैं इधर हॉल नम्बर 18 में था उधर यूपी पैवेलियन में हमारे स्टाल पर एक यूरोपियन व्यापारी पहुँच गए और हमारे स्टाल पर कोई और व्यक्ति सही से अंग्रेजी भी नहीं जानता था जो उन महोदय से बात कर लेता लेकिन भाग्य हम लोगों के संग था सो इत्तेफाक से मेरे पिता जी जो फ़िरोज़ाबाद के विधायक रहे अपने मित्र श्री गुलाम नबी अंकल के साथ किसी काम से दिल्ली आए हुए थे उन्होंने सोचा कि अतुल ने कोई फेयर में भाग लिया है वो देख लिया जाए तो वो लोग हमारे स्टाल पर आ गए थे।अब पापा ने एक आदमी मुझको हॉल नम्बर 18 पर बुलाने भेजा और मेरे आने तक उन व्यापारी महोदय को स्टाल पर बात करते हुए रोके रखा।उस समय मोबाइल फोन शुरू नहीं हुए थे पर खबर पाते ही मैं दौड़ता हुआ यूपी पैवेलियन आ गया और व्यापारी से बातचीत की।वो फ्रांस के एक व्यापारी थे और उन्होंने मुझको एक पूरे 40 फिट के कंटेनर माल का ऑर्डर दिया।उस समय पूरे फेयर में मैं काँच के उत्पादों का एकमात्र एक्सपोर्टर था जो फ़िरोज़ाबाद से था और खुद ही इन उत्पादों का निर्माता भी था।फ्रांस के व्यापारी मिस्टर शॉपियाँ महोदय के जाने के बाद इंग्लैंड के एक व्यापारी आये मिस्टर ली।उन्होंने भी एक कंटेनर का ऑर्डर लिखवाया।जब हमने उनको माल सप्लाई किया तो वो हमारी डिलीवरी और क्वालिटी से इतने खुश हुए कि उन्होंने मुझको एक फैक्स भेजा जिसमें हमारे उत्पादों की तारीफ करते हुए लिखा कि,”You are King of Glass.”स्वाभाविक है कि इस सबसे हम लोगों के हौसले काफी बढ़े।

जैसा कि मैंने बताया कि अगली बार से मैं भी EPCH के फेयर में भाग लेने लगा था।ये फेयर गजब का होता है और मैं खास तौर पर ईपीसीएच के एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर श्री राकेश कुमार,डिप्टी डायरेक्टर श्री आर के वर्मा,उस समय के मुख्य आयोजकों में से एक श्री नवरत्न समदरिया का उल्लेख करना चाहूंगा कि इन लोगों की गजब की मेहनत और आयोजन की कार्यकुशलता ने इस फेयर को विश्व के सर्वश्रेष्ठ व्यापार मेलों की कतार में अग्रणी स्थान पर खड़ा कर दिया था।मेरा दावे के साथ यह कहना है कि पहली बार जो ईपीसीएच के हैंडीक्राफ्ट फेयर को देखेगा वो अपने दांतों तले अपनी उंगलियों को दबा लेगा क्योंकि सामान्य तौर पर भारत के इतने किस्म के हस्तशिल्प एक जगह किसी का देख पाना मुमकिन ही नहीं है और इस ट्रेड फेयर की भव्यता का तो कहना ही क्या है!!!

एक बात और लिख दूँ फिर वापिस इंग्लैंड की अगली यात्रा का जिक्र करूंगा।

जैसा मैंने बताया कि मैंने भी इन व्यापार मेलों में भाग लेना शुरू कर दिया था हाँलांकि पहले जब मैं इस विषय में जानता नहीं था तो 1991 में जर्मनी में होते हुए भी मैंने अपने साथियों से व्यापार मेले में जाने की मना कर दी थी।हाँ तो बात 1996 के दिल्ली के हस्तशिल्प मेले की है।हमारा स्टाल 18 वर्ग मीटर का था और दो साइड से खुला हुआ था और खूब मौके की जगह पर था किंतु पहले दिन की सुबह से दोपहर हो गयी और कोई व्यापारी स्टाल पर रुका ही नहीं।मैं बहुत परेशान हो चला था कि तभी एक अंग्रेज बुजुर्ग मेरे स्टाल पर आए।उन्होंने अपना परिचय दिया कि वो मिस्टर विक्टर लेमेंट थे और मुझसे बोले कि मैं देख रहा हूँ कि आपकी स्टाल पर कोई आ नहीं रहा है हाँलांकि आपके उत्पाद बहुत ही शानदार हैं।मैंने कहा कि आप बिलकुल सही फर्मा रहे हैं।इस पर उन्होंने कहा कि क्या आप मेरी राय मानेंगे,मैंने जवाब में हामी भर दी तो उन्होंने मेरे स्टाल के सभी आइटमों को रैकों से हटवाया और फिर उनको रंगों की थीम और प्रोडक्ट के साइज के हिसाब से लगवाया।ये मेरे लिए सीखने का एक नया अनुभव था।मिस्टर विक्टर लेमेंट एक ब्रिटिश कंसल्टेंट किस्म के थे और उन्होंने एक कम्पनी के लिए मुझको एक बड़ा ऑर्डर भी दिया।लेकिन महत्वपूर्ण बात ये हुई कि न जाने उनका मेरे स्टाल के उत्पादों को पुनः व्यवस्थित करने का कमाल था अथवा कोई इत्तेफाक था कि उनके जाते ही मेरे स्टाल पर व्यापारियों की भीड़ लगनी शुरू हो गयी और कोई विश्वास करें या नहीं करें पूरे फेयर के दौरान मेरे स्टाल पर व्यापारियों ने लाइन जैसी में लगकर नम्बर आने पर ऑर्डर दिए यानी कि अपने नम्बर का इंतज़ार किया और उस फेयर में हमारी स्पॉट बुकिंग लगभग एक करोड़ रुपये की हुयी थी।इस समय तक हमारा एक्सपोर्ट का व्यापार कुछ व्यवस्थित सा हो चला था,उसके विकास की दर बहुत तेज थी। अपनी सुविधा के लिए मैंने और मेरे छोटे भाई अभिनव ने कुछ तो व्यापारी अलग अलग डील करने को बांट लिए थे और कुछ देश भी अलग अलग कर लिए थे।हम दोनों की ही विदेश यात्राएं काफी जल्दी-जल्दी होती थीं और इंग्लैंड का काम अधिकतर अभिनव ही देखते थे और वहाँ उनका ही आना जाना अधिक था।इस सिलसिले में एक रोचक घटना ये हुयी कि एक बार दिल्ली फेयर में एक व्यापारी हमारी स्टाल पर आया तो मैंने कहा कि भाई ये तो कपड़े भी सादा से ही पहने है और अभी बीड़ी पी रहा था लगता है कि फेयर में ऐसे ही घूमने आ गया है,इसको कुछ खरीदना आदि नहीं है तो अभिनव ने कहा कि ऐसी बात नहीं है।ये इंग्लैंड का व्यापारी है और जेन्युइन व्यापारी है।और ऐसा ही हुआ,उस व्यापारी मिस्टर विलियम हिल्ली ने हम लोगों को बीड़ी पीते हुए अपना ऑर्डर लिखाया।उनका अंग्रेज़ होते हुए अपने कान के पीछे लगी बीड़ी निकाल कर पीना हम लोगों के  लिए कौतूहल का विषय बना रहा था।

1997 में विक्टर लेमेंट वाले ऑर्डर के व्यापारी से मिलने के कारण इस बार मुझको इंग्लैंड जाना था।मेरा इस बार का टिकट हॉलैंड की KLM Airlines का था इसलिए पहले मैं दिल्ली से हॉलैंड गया।दिल्ली से एम्स्टर्डम जाते में मेरी जान पहचान अपने बगल में बैठे व्यक्ति से हो गयी जिनकी उम्र लगभग 50-55 वर्ष की रही होगी।उनका नाम मिस्टर दास गुप्ता था और लोग उनको बबली दा नाम से बुलाते थे।वो एक बंगाली व्यक्ति थे किंतु अब वो इंग्लैंड के बर्मिंघम में रहते और व्यापार करते थे।वो बातचीत में बहुत अच्छे और सज्जन व्यक्ति थे।जब उनको मालूम पड़ा कि मैं अपनी यूरोप यात्रा के बाद इंग्लैंड भी आऊंगा तो उन्होंने मुझको अपने पास बर्मिंघम आने का और अपने साथ ही ठहरने का न्यौता दिया जो मैंने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया।एम्स्टर्डम से वो आगे इंग्लैंड चले गए और मैं अपने हॉलैंड आदि के काम निपटाने को वहीं रुक गया।

अपने यूरोप के काम करके मैं लंदन को चल दिया।एम्स्टर्डम के शिपोल( Schipol)  हवाई अड्डे से लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर पहुँचने में जहाज को लगभग एक घंटा बीस मिनट अथवा डेढ़ घंटे का समय लगा।लंदन हीथ्रो हवाई अड्डे से मैं कैब लेकर सीधा लंदन के यूस्टन ट्रेन स्टेशन पहुँचा और वहाँ पहुँच कर मैंने बर्मिंघम की ट्रेन का टिकट लिया।बबली दास गुप्ता जी से मैं पहले ही बात करके अपने आने के विषय में बता चुका था।रेलवे स्टेशन पर अंदर पहुँच कर टिकट लेकर मैं ट्रेन के विषय में पूछने लगा तभी पास में खड़े ग्रे कलर का ओवरकोट पहने लगभग साढ़े छह फिट के लंबे अफ्रीकी मूल के एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा बर्मिंघम?मेरे हाँ कहते ही वो मेरी भारी अटैची लेकर भागने लगा और मैं उसके पीछे भागा।उसने आगे प्लेटफॉर्म पर खड़ी ट्रेन के डिब्बे में मेरा अटैची रखा और कहा जल्दी करो ट्रेन छूटने वाली है।जब तक मैं कुछ समझ पाता और उसको धन्यवाद देता वो मेरी आँखों से ओझल हो चुका था फिर समझ आया कि वो वहाँ रेल का ही कोई कर्मचारी था और ये उसका proffesionalism और सेवाभाव ही था जो उसने मेरी मदद की अन्यथा वो ट्रेन छूट जाती हाँलांकि शुरू में मुझको तो लगा कि वो मेरी अटैची लेकर भाग रहा है।

लंदन से बर्मिंघम का सफर लगभग डेढ़ घंटे से कुछ कम का था।बर्मिंघम स्टेशन से बाहर निकल कर मैंने बबली दास गुप्ता जी के पते के लिए टैक्सी ली और थोड़ी देर में ही मैं उनकी फैक्ट्री पहुँच गया।बबली दा के ऑफिस पहुँचते ही वहाँ उन्होंने मेरा बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया।गरमा गरम चाय पीने के बाद बबली दा ने मुझको अपनी फैक्ट्री का मुआयना करवाया।उनका fragrance manufacturing का काम था।उनकी फैक्ट्री दरअसल में दो मंजिल के बहुत ही लंबे चौड़े विशाल हॉलों के रूप में फैली हुई थी।उसमें जगह जगह कॉलेजों की केमिस्ट्री के लैब जैसी लंबी टेबिल और उनपर तरह तरह की छोटी बड़ी शीशियां और जार जैसे रखे हुए थे,कुछ में से भाप सी भी निकल रही थी।आगे चल कर छोटी छोटी शीशियों में अलग अलग खुशबू के सेंट भरे रखे थे और उनपर लेबलिंग हो रही थी।मैं अपने जीवन में पहली बार किसी सुगंध उत्पादन संस्थान को देख रहा था सो मेरे लिए ये सब बहुत रोचक दृश्य था।दोपहर को बबली दा ने अपने साथ रोटी दाल का खाना खिलवाया और उसके बाद कहा कि तुमको बर्मिंघम घूमना हो तो घूम आओ शाम को 6 बजे तक आ जाना तब घर चलेंगे।

मैं बर्मिंघम शहर घूमने निकला तो सबसे पहले उन्होंने अपनी कार से मुझको मार्केट छुड़वा दिया।बर्मिंघम के अक्षांश और देशांतर क्रमशः 52.48°N और 1.89°W है।बर्मिंघम इंग्लैंड का एक बड़ा शहर है।बर्मिंघम इंग्लैंड के West Midlands region में स्थित है।इसकी जनसंख्या उस समय लगभग 9 लाख के करीब रही होगी।बर्मिंघम लंदन के बाद इंग्लैंड का सर्वाधिक आबादी वाला शहर है।इस शहर का लगभग 1400 वर्ष का इतिहास है।पिछली शताब्दियों में यहाँ काफी उद्योग धंधे पनपे और कहते हैं कि सन 1791 आते आते बर्मिंघम को विश्व का पहला Industrial Town कहा जाने लगा था किन्तु जब मैं बर्मिंघम गया था उस समय यहाँ के उद्योग कुछ मंदी के दौर से गुजरते महसूस हुए।बर्मिंघम में नहरें भी दिखीं और भाँति भाँति के कैफे और रेस्टोरेंट भी।बर्मिंघम शहर का मौसम जुलाई में सबसे गर्म लगभग 17℃ और फरवरी में सबसे ठंडा लगभग 3℃ रहता है। बर्मिंघम शिक्षा का एक बड़ा केंद्र भी है और यहाँ कई अच्छे विश्वविद्यालय हैं।

मुझको उन दिनों पान पराग पान मसाला (सादा बिना तम्बाकू वाला) खाने का शौक था और वो मुझ पर था नहीं।मैंने वहाँ के बाज़ार में पान पराग खोजा तो कहीं मिला नहीं फिर किसी के बताने पर कि वो आगे चल कर एक स्टोर में मिल सकता है मैं उस स्टोर की तरफ पैदल ही चल दिया।वो स्टोर यद्यपि काफी दूर था किंतु बर्मिंघम की हरियाली और खूबसूरत मौसम में वो लगभग आधे घंटे पैदल की दूरी कुछ मालूम ही नहीं पड़ी।मैने उस स्टोर में पहुँच कर अपनी खोज शुरू कर दी लेकिन लगभग सारी रैकों में खोजने के बाद भी मुझको पान मसाला कहीं नहीं मिला।मेरे चेहरे पर निराशा के भाव देख कर स्टोर के मालिक जिनकी उम्र लगभग 35-40 वर्ष की रही होगी वो मेरे पास आये और उन्होंने मुझसे पूछा कि जनाब आप क्या खोज रहे हैं?मैंने उनसे कहा कि मैं कई दिनों से पान पराग की तलाश में हूँ किन्तु मिल नहीं रहा तो वो बोले कि आज तो पान पराग नहीं है।इस पर मैं थोड़ा निराश होकर चलने लगा तो वो मुझको अपने बैठने के स्थान के पास ले गए और उसके पीछे दीवाल में बनी एक छोटी सी अलमारी खोल कर उन्होंने पान पराग का डिब्बा निकाल कर मुझको खाने को दिया।मैंने धन्यवाद देते हुए मसाला खाया और चलने को हुआ तो वो बोले कि ये डिब्बा आप ले जाइए।मैंने पहले मना किया किन्तु उन्होंने बहुत जोर दिया तो मैंने पैसे पूछे तो वो मुस्कुराते हुए बोले कि अरे जनाब आप भी शौकीन हैं और मैं भी इसका शौकीन हूँ,ये तो मेरा अपने खाने का डिब्बा था अब आप ले जाइए और उन्होंने जबरदस्ती वो डिब्बा मुझको दे दिया।हम लोगों की फिर काफी देर बातचीत होती रही।वो मुझसे फ़िरोज़ाबाद, दिल्ली और भारत के विषय में बातें पूछते रहे दरअसल वो पाकिस्तान से थे।उनकी खुशमिजाजी और हँसता हुआ शालीन चेहरा मुझको आज भी याद है।अपनी विदेश यात्राओं में मैंने कई बार ऐसा महसूस किया कि भारत और पाकिस्तान के बीच झगड़े और वैमनस्य जितने अखबारों और टीवी पर दिखते हैं वो जब दोनों देश के लोग आपस में मिलते हैं तब अक्सर ऐसा महसूस नहीं होता है। शायद जनता के दिल की आवाज़ और सियासत की मजबूरियों में अक्सर कर बहुत फर्क होता है।लोगों से बात कर के यह भी मालूम पड़ा कि बर्मिंघम में लगभग 25-26% आबादी एशियन समुदाय के लोगों की है जिसमें भारतीय और पाकिस्तानी भी काफी थे।इसके बाद बाज़ार में मैं थोड़ा घूमा और एक स्टोर से मैंने नई डिज़ाइन के दिखने वाले काँच के कुछ डिकेंटर्स भी खरीदे जिनको देख कर हम लोग कुछ नयी डिज़ाइन के डिकेंटर्स खुद भी बना सकें।इस सब में मेरे काफी पैसे खर्च हो गए किन्तु मेरे पास इस बार अपनी बैंक का वीसा का इंटरनेशनल क्रेडिट कार्ड था इस लिए चिंता की कोई बात नहीं थी।

शाम 6 बजने तक मैं बबली दा के ऑफिस आ गया था और वहाँ एक चाय पी कर उनके साथ मैं उनके घर के लिए चल दिया।

बबली दा का घर बर्मिंघम के एजबेस्टन नामक एक पौश इलाके में था।बबली दा के घर के बाहर खूब हरियाली और पौधों की हैज लगी हुई थी।मुख्य द्वार पर तीन या चार सीढ़ी चढ़ कर दरवाजा था।ये एक दो मंजिला घर था जिसमें बबली दा अपनी पत्नी और लगभग 5-6 वर्ष की एक पुत्री के साथ रहते थे।बबली दा ने बताया कि उनकी पत्नी दक्षिण अमेरिकी देश पेरू की थीं और उम्र में शायद उनसे 25-27 वर्ष छोटी थीं और इस समय उनसे झगड़ कर अपने देश गयी हुई थीं अपनी छोटी सी बहुत ही प्यारी बच्ची को यहीं छोड़ कर।बबली दा की बातों से लगा कि नौबत तलाक तक की भी हो सकती थी।खैर,उनकी छोटी सी बच्ची बहुत ही प्यारी गुड़िया जैसी थी और उसको देख कर मुझको परदेस में लगभग उसकी ही उम्र की अपनी बिटिया रानी ऐश्वर्या जिसको हम लोग प्यार से किन्नी कहते हैं उसकी याद आने लगी।रात को काफी देर तक मैं बबली दा से बातें करता रहा इंग्लैंड के विषय में,भारत के विषय में,बंगाल के विषय में और विदेशों में रह रहे भारतीयों के विषय में और साथ ही साथ उस प्यारी सी गुड़िया से खेलता भी रहा।रात को बच्ची की केयर टेकर जो एक अंग्रेज किस्म की महिला थीं वो आ गईं और उन्होंने उस बच्ची को खाना आदि खिलाया।बबली दा ने बताया कि रात को वो उनके ही घर में रुकती हैं और सुबह बच्ची को तैयार भी वही करती हैं।अगले दिन मुझको लंदन वापिस जाना था तो बबली दा ने कहा कि वो सुबह अपनी बेटी को छोड़ने उसके स्कूल जाएंगे,वहाँ parents day जैसा कुछ था और उसके बाद मुझको रेलवे स्टेशन छोड़ देंगे।इस पर मैंने कहा कि सुबह मैं भी बच्ची के स्कूल चलूँगा।इसके बाद ऊपर की मंजिल पर एक कमरे में बबली दा ने मेरे सोने का इंतजाम किया था मैं उस कमरे में आकर लेट गया।बिस्तर पर लेटे लेते मैं बबली दा के विषय में सोचने लगा कि भारत के लोगों ने दूसरे देशों में जाकर अपनी मेहनत से कैसे अपना एक छोटा मोटा साम्राज्य सा ही खड़ा किया है और फिर भी अपनी जड़ों को भूल नहीं हैं।बबली दा की ये बात मेरे दिल को छू गयी थी कि विदेशों में ठहरना बहुत ही महंगा है इसलिए यदि कोई भारतीय उनको मिलता है तो बर्मिंघम में अपने साथ ठहरा लेते हैं।

अगली सुबह मैं उन लोगों के साथ नाश्ता आदि करके बबली दा की बच्ची के स्कूल गया।अलग अलग स्थानों की जीवन शैली,पढ़ाई लिखाई आदि जानने के प्रति मेरी रुचि सदैव से रही ही है।वह स्कूल बर्मिंघम के पॉश इलाके में था और काफी अच्छा स्कूल प्रतीत हो रहा था।मैंने देखा कि अपने देश से विपरीत वहाँ एक क्लास में बहुत अधिक बच्चे नहीं थे और ना ही बच्चों के वजन से अधिक के बस्ते ही थे।क्लास रूम्स में बहुत सुंदर रंग बिरंगी कुर्सी मेजें थीं,बच्चों के खेलने के साधन थे और स्कूल में बच्चे बहुत ही खुश दिख रहे थे।मैं ये सोच रहा था कि देश के भविष्य का निर्माण तो इसी जगह से आरंभ होता है।मुझको याद आ रहे थे अपने यहाँ के अपने वजन और शरीर से भी बड़ा और भारी बस्ता लादे अपने देश के स्कूलों के बच्चे,ट्यूशन पढ़ाते शिक्षक,मिड डे मील में खाने में गड़बड़ करके खराब खाना सप्लाई करते ठेकेदार और गांवों में बिना किसी सुविधा के टाट पट्टी पर बैठ कर पढ़ते बच्चे।मैं यह सोचने पर मजबूर था कि आखिर हमारे यहाँ के बच्चों का क्या दोष है कि उनको वो सुविधाएं और अच्छी शिक्षा नहीं मिलती जिसके कि वो हकदार हैं।सही अर्थों में दोष तो शिक्षा प्रणाली और नीति नियंताओं का है जिसका खामियाजा ना जाने कितनी पीढ़ियों को भोगना पड़ता आ रहा है।

स्कूल के बाद बबली दा ने मुझको रेलवे स्टेशन छोड़ दिया इस वादे के साथ कि मैं फिर आऊँगा।मैं लंदन की ट्रेन में बैठ कर बबली दा की सहृदयता के विषय में सोच रहा था।हाँलांकि अब जो समय है उसमें आतंकवाद आदि के खतरों को देखते हुए ना तो कोई व्यक्ति किसी अनजान व्यक्ति को अपने घर ठहरायेगा और ना ही किसी भी व्यक्ति को अब किसी अनजान व्यक्ति के पास रुकना ही चाहिए।

लंदन पहुँच कर मैं कैब करके अपने ठहरने के स्थान Hotel St.Giles पहुँचा जो कि bedford avenu, Bloomsbury में  Tottenham Court road स्टेशन और ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट के पास  स्थित था।इस होटल में मैंने पहले से ही बुकिंग करा ली थी।अभिनव ने बताया था कि फ्लाइट से पहुँचने वालों को ये होटल वाले कुछ डिस्काउंट भी देते हैं।होटल पहुँचने पर मन बहुत अच्छा हुआ क्योंकि होटल बहुत अच्छा था।सबसे पहले तो एक अंग्रेज ने कार से मेरा सामान निकाल कर,उठा कर होटल के अंदर और फिर कमरे में पहुँचाया।इस से होने वाली एक किस्म की सुखद अनुभूति को हर भारतीय महसूस करेगा और वो लोग तो खास तौर से जो आधुनिक भारतीय इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं।ये होटल उस समय लंदन के अच्छे होटलों में था और इसकी गिनती 5 स्टार होटलों में थी यद्यपि अभी मैंने नेट पर देखा तो अब इसको 3 ½ स्टार बता रहा है।इस होटल से थोड़ी दूरी पर ही सेंट जेम्स कोर्ट होटल था जहाँ भारत के प्रधान मंत्री आदि ठहरते थे।होटल में अंदर घुस कर कुछ सीढियाँ चढ़ कर मैं रिसेप्शन पर पहुँचा।रिसेप्शन पर बैठी महिला ने कहा कि बुकिंग मेरे नाम से है।जब मैंने डिस्काउंट की बात की तो उनका कहना था कि उनकी डील सिर्फ ब्रिटिश एयरवेज़ से थी और मैं KLM से सफर कर रहा था,इसलिए डिस्काउंट नहीं मिला और अब लगभग 100 डॉलर रोज का होटल मुझको कुछ मंहगा लग रहा था।रिसेप्शन पर उन्होंने मुझसे पूछा कि पेमेंट कार्ड से करूंगा या कैश तो मैंने बड़ी शान से कार्ड कहा और उनके मांगने पर अपना क्रेडिट कार्ड उनको दे दिया।

भारत में इंटरनेशनल क्रेडिट कार्ड का प्रचलन हाल ही में शुरू हुआ था।मेरी बैंक ने मुझको unlimited  creditवाला card (Gold Card) मुझको दिया था।मैं भी 1997 में कैशलैस के चक्कर में कैश करेंसी कम लाया था और लंदन पहुँचते पहुँचते मेरे पास अब मात्र 2-3 सौ डॉलर ही नकद बचे थे।होटल में सामान रख कर मैं लंदन में जरा टहलने निकल गया।मैंने दो चार होटल भी तलाशे कि इस से कुछ सस्ता होटल मिल जाये किन्तु वहाँ ट्रेड फेयर चलने के कारण कोई भी अच्छा होटल उपलब्ध नहीं था।अगला दिन शनिवार का था और मैं सोमवार तक तो लंदन में था ही क्योंकि सोमवार को मुझको अपने व्यापारी से मिलने जाना था।थोड़ी देर टॉटेनमकोर्ट रोड और ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट आदि घूम कर मैं अपने कमरे में आकर गर्म पानी से नहा कर सोने की तैयारी में था कि कमरे का फोन बजा।मैंने सोचा अब यहाँ कौन मुझको फोन कर रहा है किंतु वो फोन रिसेप्शन से था और उन्होंने मुझको बताया कि मेरा क्रेडिट कार्ड काम नहीं कर रहा।ये सुनते ही मेरे तो हाथों से जैसे तोते उड़ गए।मेरे पास तो सोमवार तक होटल में रुकने/खाने लायक भी नकद पैसे बहुत मुश्किल से ही थे।मेरा टैकसैवी और कैशलैस होने का स्वप्न अब भयावह हो चला था।मैं सोचने पर मजबूर था कि अब क्या किया जाए।

Comments

  1. अतुल भाई ... देखते ही देखते आपने तो अपनी कहानी में मुझे कैद कर लिया ! बहुत प्रेरणादायक लगा अपनी घोर मेहनत से अपने व्यापार को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाना! विक्टर लमेन्ट और विलियम हिली के प्रसंग दिल को छू गए ...अंत मे क्रेडिट कार्ड की कहानी ने अब बड़ी उत्सुकता भर दी है यह जानने की .. कि आगे क्या हुआ होगा ! अगले अंक में सबसे पहले रोचकता पूर्वक सबसे पहले यही पढ़ेंगे ..हम लोग !!(अशोक कुमार के अंदाज़ में)
    हाहाहा

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    1. धन्यवाद,संदीप भाई!आप लोगों को पसंद आ रहा है तो मैं भी लिखता जा रहा हूँ।

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