भारत में काँच उद्योग का इतिहास-विशेष संदर्भ फिरोजाबाद भाग-1

आजकल भारत में काँच उद्योग,विशेष सन्दर्भ फिरोजाबाद विषय पर काम कर रहा हूँ।उसी से कुछ अंश:-

भारत में काँच उद्योग का इतिहास-
विशेष संदर्भ फिरोजाबाद

ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने अपने जीवन में कहीं न कहीं,किसी न किसी रूप में ग्लास या काँच को न देखा हो।काँच का उत्पाद जब सजावटी होता है तो मनुष्य को आकर्षित करता है,जब औषधीय काम में प्रयुक्त हो रहा हो तो उम्मीद और भय दोनों जगाता है,जब दैनिक उपयोग की वस्तु हो तो खरीदने की इच्छा जगाता है और जब इसका उपयोग विज्ञान,उद्योग या किसी ऐसे क्षेत्र में होता दिखे जिसके विषय में हम नहीं जानते तो यह आश्चर्य, उत्सुकता और जिज्ञासा के मिले-जुले भाव उत्पन्न करता है।
वैसे तो जब से यह पृथ्वी बनी है तभी से काँच भी यहाँ बन गया होगा क्योंकि जब ज्वालामुखी फट रहे होंगे तो उसकी गर्मी से लावा तो निकलता ही है पर कई स्थानों पर रेत ने पिघल कर काँच का रूप ले लिया होगा।मानव सभ्यता के विकास के क्रम में कहीं न कहीं,कभी न कभी मनुष्य का ध्यान उस काँच पर गया होगा और वो उसकी ओर आकृष्ट हुआ होगा।मानव स्वभाव है कि जब वह किसी वस्तु की ओर आकर्षित होता है तो उसमें उस वस्तु के प्रति जिज्ञासा भी जागती है और बस यहीं से मनुष्य और काँच की दोस्ती की कहानी शुरू हो गयी होगी।

इतिहास घट तो चुका होता है किंतु जो हो चुका है उसकी पूरी जानकारी हम पर हो या जैसे घटनाक्रम हुआ होगा हमारी जानकारी बिल्कुल वैसी ही हो यह कतई ज़रूरी नहीं है। इसलिए जब हम किसी वस्तु,विषय या घटना के इतिहास की बात करते हैं तो वो बात हमारी उस समय तक उपलब्ध साक्ष्यों और जानकारी के आधार पर होती है और यदि हमको कोई नए साक्ष्य या जानकारी मिलती है तो उसकी जाँच करके सही पाए जाने पर उपलब्ध जानकारी या इतिहास में उसको भी समाविष्ट किया जाता है।काँच के इतिहास और विशेष सन्दर्भ में फिरोजाबाद में काँच के इतिहास पर भी बात करते में हमको ध्यान रखना होगा कि यह बात अभी तक उपलब्ध साक्ष्यों और जानकारी के आधार पर है।
आज के युग में काँच मानव जीवन का एक जरूरी हिस्सा बन चुका है और हमारे जीवन में काँच से बने विभिन्न उत्पादों का प्रयोग अब एक सामान्य सी बात हो गयी है।काँच को सबसे पहले कहाँ और किसने खोजा इस विषय में सही तौर पर कुछ कह पाना मुश्किल है किंतु यह कहा जा सकता है कि काँच की मौजूदगी के प्रमाण हमको प्रागैतिहासिक काल से ही दिखते हैं।काँच की उस समय की वस्तुओं से आज तक काँच में बहुत परिवर्तन हो चुका है और आज के काँच उत्पादों को देख कर उस समय के काँच उत्पाद या काँच की कल्पना भी करना मुश्किल ही है।
ऐतिहासिक साक्ष्यों से मालूम होता है कि प्रागैतिहासिक काल के लोग ज्वालामुखी के लावे और गर्मी के परिणामस्वरूप रेत से बने काँच से,जिसके लिए ओब्सिडियन (Obsidian) शब्द का प्रयोग हुआ है,चाकू,नुकीले हथियार और शायद गहने आदि भी बनाते थे।यह काँच आज के काँच की भांति क्लियर,स्वच्छ और सफेदी या जलीय टोन पर नहीं होता था अपितु धुंधला और पीलापन लिए होता था।
 
जब हम काँच या काँच के बने उत्पाद देखते हैं तो यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि काँच आखिर बनता कैसे है?अगर हम यह कहें कि जो हमारी संस्कृति में कहा गया है कि दुनिया में लगभग सारी चीजें क्षिति,जल, पावक, गगन और/या समीर से बनी हैं और काँच में भी इसका अपवाद नहीं है तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।रसायनशास्त्र की प्राचीन मान्यता के अनुसार थोड़े बहुत परिवर्तन से दरअसल वस्तु या पदार्थ पूरे तौर पर भी अपना गुण और रूप बदल सकते हैं। अगर हम कहें कि काँच और कुछ नहीं बस सिर्फ रेत या बालू है तो शायद बहुतों को यह असत्य प्रतीत हो किंतु दरअसल काँच के मूल में रेत,बालू या सिलीका सैंड ही है।रेत या बालू को गला कर उसका कैमिकल रूप बदलता है और वो काँच में परिवर्तित होती है।जब आप रेगिस्तान या किसी रेतीले इलाके में गर्मी में जाएं तो आपको रेत की गर्मी और तपिश महसूस अवश्य होगी लेकिन इसको गर्म होकर तरल रूप में बदलने को इससे कहीं ज्यादा तापमान चाहिए होता है यानी कि लगभग 1700° सेंटीग्रेड से ऊपर।यह लगभग वही तापमान है जिस पर पृथ्वी के वातावरण में पुनर्प्रवेश के समय स्पेस-शटल पहुँच जाती है।
अब चूंकि इतने अधिक तापमान पर ले जाकर सिलीका सैंड या रेत को गलाने में बहुत ज्यादा खर्चा तथा प्रयास लगेगा और कठिन काम को आसान करने का प्रयत्न करना मानव स्वभाव है तो मनुष्य ने इसका रास्ता भी खोज ही लिया।सिलीका सैंड में यदि सोडा ( सोडा ऐश या सोडियम कार्बोनेट) मिला लिया जाए तो रेत को कम तापमान पर गलाया जा सकता है और इसमें ही यदि चूना यानी लाइम स्टोन भी मिला दें तो यह तरल पदार्थ बाद में ठंडा होकर स्थिर रूप ले लेगा और इस सोडा-लाइम ग्लास को विभिन्न आकारों में ढाल कर अपनी मनचाही वस्तुएं बनाई जा सकती हैं।
अब समय के साथ आगे चल कर मनुष्य सीखता गया कि इस काँच को कैसे अलग-अलग रंगों में बना सकते हैं,इसके उपयोग के अनुसार कैसे इसको अधिक मजबूत या थर्मल शौक झेलने वाला आदि बना सकते हैं।यहाँ अलग-अलग किस्म का काँच कैसे बनाया जाता है मैं उसके विस्तार में नहीं जाना चाहूँगा क्योंकि मेरे इस लेखन का विषय काँच का इतिहास है न कि काँच बनाने का विज्ञान।
 अभी तक प्राप्त साक्ष्यों और जानकारी के आधार पर हम कह सकते हैं कि दुनिया में काँच बनाने का इतिहास लगभग 3600 वर्ष पुराना है।इतिहासकारों का मानना है कि काँच की मौजूदगी के प्राचीनतम साक्ष्य लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा पहले के मिलते हैं मेसोपोटामिया के इलाके में। पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि आज से लगभग तीन हजार छै सौ साल पहले काँच मेसोपोटामिया में बनता था यद्यपि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि वो लोग मिस्र या इजिप्ट की नकल कर ये काँच बना रहे थे।काँच बनाने के प्राचीनतम प्रमाण वर्तमान सीरिया के उत्तरी तट, मेसोपोटामिया और इजिप्ट में पाए गए हैं।काँच के उत्पादों में जो सबसे पुरानी वस्तुएं मिलती हैं वो लगभग 2000 वर्ष ईसा पूर्व के बने काँच के मोती हैं जो शायद काँच बनने  की रासायनिक प्रक्रिया के पहले की वस्तु जिसको इजिप्ट में फैन्स Faience के नाम से जाना जाता है उससे बने हैं जिस पदार्थ का उपयोग चमक या ग्लेज़िंग की भांति किया जाता था।
उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार ईसा पूर्व लगभग तीसरी सहस्त्राब्दी में मिस्र या इजिप्ट में काँच उत्पादन की प्रक्रिया व्यवस्थित रूप में मौजूद थी और 18वें राजवंश के दौरान ऐमेनहोटेप द्वितीय (Amenhotep II) के काल 1448-1420 ईसा पूर्व  में मिस्र में काँच बनाने के कारखाने स्थापित किये गए थे।टैल एल ऐमरना (Tell El-Amarna 1450-1400 BC) में घरों से काँच के अवशेष भी मिले हैं।
इजिप्ट और मेसोपोटामिया खासतौर से प्राचीन असीरियन इलाकों में तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में भी काँच के बनाने वाले मौजूद थे।उर तृतीय (UR III 2100 BC) और ज़िग्गुरत में असुर (1800 BC) के मकबरों में मेसोपोटामिया में काँच के मोतियों के प्रमाण मिले हैं।(Story of Glass in India & the World
by Pankaj Goyal
Posted 7/29/03)।

नोट:-इस पोस्ट के समस्त कॉपीराइट,प्रकाशनाधिकार लेखक अतुल चतुर्वेदी के हैं।

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