रामसेतु : मिथक नहीं सत्य

रामसेतु भारतीय संस्कृति और सांस्कृतिक-धार्मिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थल है जिसका हमारी संस्कृति में अत्यधिक महत्व माना गया है। रामसेतु, भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिणी भाग में स्थित है।

रामसेतु भारतीय आमजन में उस संरचना को कहा गया है जो भारतीय संस्कृति,पौराणिक आख्यान,भारतीय साहित्य और आम जन के विश्वास के अनुसार भगवान राम द्वारा रावण को पराजित करने हेतु लंका जाने के लिए भारत और लंका के बीच के समुद्र में बनाया गया था।

रामर पालम या रामसेतु तमिलनाडु, भारत के दक्षिण पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम द्वीप तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के मध्य स्थित था और भौगोलिक प्रमाणों से यह पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू मार्ग से आपस में जोड़ता था।

रामसेतु के विषय में विविध  किस्म के आख्यान हैं, विश्वास हैं और मान्यताएं भी हैं। एक विचार यह कहता है कि यह संरचना प्राकृतिक है न कि मानव निर्मित तो एक  विचार और विश्वास इसको रामायण काल और भगवान राम से जोड़ता है।

सबसे पहले चर्चा करते हैं  हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, पौराणिक, धार्मिक और ऐतिहासिक साहित्य में इस सेतु की चर्चा कब और कैसे की गई है फिर हम इसके वैज्ञानिक और अन्य पहलुओं की चर्चा करेंगे।

यदि हम साहित्य की बात करें तो रामसेतु सम्बंधित सबसे पहली चर्चा या  जिक्र श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में मिलता है। वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के प्रथम सर्ग के 17वें श्लोक में रामचंद्र जी सुग्रीव से पूछते हैं कि:-

"कथं नाम समुद्रस्य दुष्पारस्य महाम्भस:।

हरयो दक्षिणम पारं गामिष्यन्ति समागताः।।"


अर्थात "महान जलराशि से परिपूर्ण समुद्र को पार करना तो बड़ा ही कठिन काम है।यहाँ एकत्र हुए वानर समुद्र के दक्षिण तट पर कैसे पहुँचेंगे?"

 इसके आगे इसी वाल्मीकि रामायण के 19वें सर्ग में रामचन्द्र जी के समुद्र पार करने का उपाय पूछने पर विभीषण ने रामचन्द्र जी के पूर्वज राजा सगर का जिक्र करते हुए कहा है कि इसलिए समुद्र को रामचंद्र जी का काम अवश्य करना चाहिए और इस हेतु वो रामचंद्र जी से समुद्र से सहायता माँगने की राय देते हैं।


कालिदास रचित 'रघुवंश' के 13वें सर्ग में भगवान राम के लंका जीतने के बाद सीता जी के साथ आकाश मार्ग से लौटने का वर्णन है और इसमें रामचंद्र जी सीता जी को रामसेतु के विषय में बताते हैं।


स्कंद पुराण के तीसरे, विष्णु पुराण के चौथे, अग्नि पुराण के पांचवें से ग्यारहवें अध्याय और ब्रह्म पुराण में भी रामसेतु का जिक्र है।

महाभारत में भी 'नल-सेतु' नाम से इसका जिक्र आया है।


तुलसीदास कृत श्री रामचरितमानस में भी सुग्रीव और विभीषण से भगवान राम ने समुद्र पार करने का उपाय पूछा है:-

"सुनु कपीस लंकापति वीरा,केहि विधि तरिअ जलधि गंभीरा।

संकुल मकर उरग झष जाती,अति अगाध दुस्तर सब भाँती।।"


मैं इस लेख में पहले रामसेतु के जिक्र की चर्चा कर रहा हूँ, इसके बाद हम इसके बनने के आख्यानों की चर्चा करेंगे तत्पश्चात इसकी वैज्ञानिक और अन्य विषयक चर्चा की जाएगी।


अनेक राम कथाओं में भी सेतु निर्माण का जिक्र मिलता है। हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान फादर कामिल बुल्के ने, जो मूलतः बेल्जियम के नागरिक थे, "रामकथा" पर बहुत प्रमाणिक काम किया है। रामकथा से सम्बंधित किसी सामग्री को उन्होंने अपने शोध में शायद ही छोड़ा हो। 1909 में जन्मे फादर कामिल बुल्के बेल्जियम से कैथोलिक मिशनरी के कार्य के लिए भारत आये थे और यहीं के हो गए। उन्होंने  इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सम्बध्द रहकर अपने शोध प्रबंध 'रामकथा : उत्पत्ति और विकास' (सन 1950) प्रस्तुत किया जो इस विषय का एक अद्भुत और प्रामाणिक ग्रन्थ है। वे रांची के सेंट जेवियर कॉलेज के हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी रहे। मैंने अपने इस लेख में फादर कामिल बुल्के के इस ग्रन्थ से भी मदद ली है।


आचार्य विमलसूरि कृत 'पउमचरिथम' में समुद्र नामक राजा को नल द्वारा पराजित किया जाता है।मलयदेश की रामकथा में भी ऐसा जिक्र है।


पद्मपुराण के अनुसार रामचंद्र जी ने समुद्र तट पर शिवजी से सहायता के लिए प्रार्थना की। प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने रामचन्द्र जी को 'अजगव' नामक धनुष प्रदान किया। इस कथा के अनुसार रामचंद्र जी ने उस धनुष को समुद्र में फेंक दिया और उस पर से ही समस्त सेना ने समुद्र पार किया।


विर्डोर रामकथा, कंबोडिया में प्रचलित रामकथा आदि के अनुसार हनुमानजी अपनी पूंछ बढ़ाते हैं और राम-लक्ष्मण उसी पर से समुद्र पार करते हैं। कहने का आशय यह है कि दुनिया भर में प्रचलित रामकथा साहित्य में इस सेतु का भी जिक्र है हाँलाँकि फादर कामिल बुल्के ने अपने शोध में पाया कि कुछ साहित्य इस सेतु के बिना ही भगवान राम-लक्ष्मण और उनकी सेना का समुद्र पार करने की बात भी करते हैं।


अब हम चर्चा करेंगे इस सेतु के निर्माण के विषय में कुछ बातों की जिनका जिक्र विभिन्न साहित्यिक और अन्य आख्यानों में है।

गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में जिक्र है कि कैसे रामचंद्र जी समुद्र से तीन दिन तक रास्ता देने की विनती करते हैं और फिर तुलसीदास जी ने बताया है कि:-


"विनय न मानत जलधि जड़,गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब,भय बिनु होइ न प्रीति।।"


और फिर रामचन्द्रजी  लक्ष्मण जी से कहते हैं:-


"लछिमन बान सरासन आनू।

सोषों बारिधि बिसिख कृसानू।।"


इसी घटना की चर्चा वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के 22वें सर्ग के 5वें श्लोक में है कि:-

"ब्राह्मनास्त्रेण संयोज्य ब्रह्मदण्डनिभम शरम।

संयोज्य धनुषि श्रेष्ठे विचकर्ष महाबल:।।


अर्थात यह कह कर महाबली श्री राम ने एक ब्रह्मदण्ड के समान भयंकर बाण को ब्रह्मास्त्र से अभिमंत्रित करके अपने श्रेष्ठ धनुष पर चढ़ाकर खींचा।


अब इस घटना के बाद रामायण और रामचरितमानस आदि सभी में आगे वर्णन है कि किस प्रकार भयभीत होकर समुद्र रामचन्द्र जी की शरण में आता है और फिर समुद्र से बातचीत के बाद रामचन्द्र जी अपना बाण एक दिशा की ओर छोड़ते हैं जहाँ उपद्रवी लोग रहते थे ताकि उनका नाश हो सके। रामायण के युद्ध कांड के  इसी 22वें सर्ग के 32वें श्लोक में उत्तर दिशा के इस प्रदेश का नाम द्रुमकुल्य बताया गया है जो बाण छूटने के परिणामस्वरूप मरुस्थल में परिवर्तित हो गया।

अब यदि इस घटनाक्रम में जरा तर्क का अनुशीलन किया जाए तो एक बात यह उभर कर आती है कि सम्भव है जब अपनी सेना के साथ रामचन्द्र जी, लक्ष्मण जी, सुग्रीव, हनुमान जी आदि के साथ समुद्र तट पर पहुँचे हों तो उनको अपने सूत्रों से यह पता चला हो कि इस इलाके में कहीं समुद्र तल उथला भी है जहाँ से लंका जाया जा सकता है किंतु रावण के भयवश या अपनी मानसिकता के कारण स्थानीय क्षत्रप उनको तमाम राजनयिक प्रयासों के बावजूद उस स्थान के विषय में किसी भी प्रकार की जानकारी न दे रहे हों। जब सारे प्रयास विफल हो गए और रामचन्द्र जी ने फिर उन समुद्रीय क्षत्रपों से युद्ध की ठानी हो और तब अपने नाश के भय से उस समुद्री इलाके के ये राजा या स्वयम समुद्र माफी मांगते हुए एक डील लेकर आये हों जिसके अनुसार उस इलाके के लोगों को जिस उत्तरी क्षेत्र द्रुमकुल्य के लोग परेशान करते थे, रामचन्द्र जी उस इलाके को दुष्टविहीन कर देंगे और ऐसा हुआ भी, जिसके बाद उन राजाओं ने रामचन्द्र जी को उस इलाके के समुद्र की पूरी भौगोलिक जानकारी प्रदान कर दी तथा बताया कि उस वानर सेना में नल और नील नामक दो इंजीनियर हैं जिनके नेतृत्व में समुद्र पर सेतु बनाया जा सकता है और जो आगे चलकर इन आख्यानों के अनुसार बनता भी है। 


सेतुबंध के विषय में गिलहरी द्वारा सहयोग की कथा का जिक्र कई पौराणिक किस्म के आख्यानों में है। 9वीं सदी के "आलवारविप्रनारायण" की रचना में भी सेतु निर्माण में गिलहरी की सहायता  सम्बन्धी कथा है। रंगनाथ, कृत्तिवास, बलरामदास आदि की रामायणों में भी इसकी चर्चा है।

रामचरितमानस और रामायण आदि ग्रंथों में 100 योजन लंबे और 10 योजन चौड़े इस पुल को बनाने में आयी बाधाओं का भी जिक्र आया है।यहाँ यह बात भी विचारने योग्य है कि विश्व की ऐसी कितनी घटनाओं को अलग-अलग समय में और अलग-अलग देशों के साहित्य में इतना स्थान मिला है और जब मिला है तो क्या सब काल्पनिक ही था या इसके मूल में कुछ वास्तविकता में भी था? इतिहास तो बिना प्रमाण कुछ मानेगा कैसे किंतु फिर भी उस स्थान का भूगोल और इसकी इतनी विशद चर्चा इसको पूर्णतयाः कल्पना मानने को भी सहमत नहीं कर पाती है।


अब इन सांस्कृतिक,धार्मिक और साहित्यिक आख्यानों के बाद चर्चा करते हैं इतिहास की। इतिहास में 8वीं सदी में पमबन या कहें कि रामेश्वरम और लंका टापू के सम्बंध की चर्चा दिखती है "कासकुडी" के नन्दीवर्मन के ताम्रपत्र में जिसके अनुसार उसके एक पूर्वज के द्वारा लंका को जीतने का जिक्र है।

इसके अतिरिक्त एक दूसरी चर्चा मिलती है जाफना के आर्यचक्रवर्ती वंश द्वारा स्वयम को इस पुल का अभिभावक-रखवाला-कस्टोडियन बताने में। इस बात से लगता है कि उस समय कोई ऐसा निर्माण था जो पुल जैसा था या पुल ही था और जो वर्तमान दक्षिण भारत के इस हिस्से को लंका के उत्तरी भाग से जोड़ता था।अर्थात इन उद्धरणों से यह तो साबित होता है कि भारत के दक्षिणी भाग को लंका के उत्तरी भाग से एक सेतु या पुल जोड़ता तो था।


9वीं सदी के पर्शिया (आधुनिक ईरान) के भूगोलविद इब्नखोरदाबेह की "किताब अल- मसालिक वा-ल- ममालिक भी एक ऐसे निर्माण का जिक्र "सेत-बंधाई" नाम से करती है जिसका तात्पर्य पुल ही होता है।

अल-बरूनी ने भी अपनी तारीख अल- हिन्द (1030 ईसवी) में इस सेतु  का जिक्र किया है अलबत्ता वो इसका जिक्र इस्लामिक विश्वास और मान्यता के हिसाब से "आदम का पुल" या Adam's Bridge के रूप में करता है। बताते हैं कि इस्लाम की मान्यता के अनुसार बाइबिल वाले आदम की चोटी या पर्वत शिखर लंका में स्थित है जहाँ बाइबिल के अनुसार आदम पृथ्वी पर गिरे थे।


बहरहाल इतना तो इन ऐतिहासिक आख्यानों से भी प्रतीत होता है कि उस इलाके में उस जमाने में कोई पुल जैसा निर्माण तो था ही जिससे समुद्र पार करना सम्भव होता था।


अब हम चर्चा और विश्लेषण करेंगे उस स्थान के भूगोल और अन्य परिस्थितियों की। बताया गया है कि यह पुल 48 किलोमीटर या 30 मील लंबा था। यह मोटे तौर पर चूना पत्थर या लाइमस्टोन्स की एक श्रृंखला जैसी चीज है जो पमबन- रामेश्वरम के टापू वाले तमिलनाड़ु के तटीय क्षेत्र से वर्तमान श्री लंका के मन्नार तट तक फैली हुई है। भारतीय भूगर्भशास्त्री ऐन रामानुजन के एक वैज्ञानिक लेख के अनुसार यह निर्माण जिसको ऐडम्स ब्रिज भी कहते हैं पाक जलडमरूमध्य (Palk Strait) और मन्नार की खाड़ी के बीच उथले समुद्र में तलछट से निर्मित रेत के छोटे-छोटे (Shoals) टीलों का निर्माण है। इस किस्म के टीले या शोल उथले-छिछले पानी वाले समुद्र में भाटे के समय दिखते हैं। आसाम में ब्रहमपुत्र नदी के बहाव क्षेत्र में भी कुछ ऐसे स्थान हैं जहाँ इस किस्म के छिछले स्थल के निर्माण दृष्टिगोचर होते हैं।


भारत और श्रीलंका के बीच के उथले समुद्र वाले इलाके में कुछ क्षेत्र ऐसा भी है जहाँ कि समुद्र की गहराई एक मीटर यानी लगभग तीन फुट भी नहीं है जिसमें से एक नाव का गुजरना भी मुश्किल होता है और इसीलिए भारत और श्रीलंका के बीच जाने वाले समुद्री जहाज कुछ लंबा इलाका घूम कर जाते हैं। 

उपरोक्त बातों से जो स्पष्ट होता है वो यह है कि भारत और श्रीलंका के बीच कुछ इलाकों में समुद्र बहुत छिछले पानी वाला है और यहाँ तलछट से बने छोटे-छोटे रेतीले टीलों जिन पर पत्थर भी जमे दिखते हैं की श्रृंखला भी है जो नासा के उपग्रहों से भी दिखी है।


रामानाथस्वामी मंदिर के रिकॉर्डों के अनुसार भारत और श्रीलंका के बीच के इस भूभाग को एक पुल जैसा निर्माण जोड़ता था और लोग इस पर से पैदल चल कर जाया करते थे किंतु सन 1480 ईस्वी में आये एक भयानक समुद्री तूफान (हो सकता है सुनामी रही हो) ने समुद्री क्षेत्र में बहुत उथल-पुथल की जिसके परिणामस्वरूप वो स्ट्रक्चर टूट गया या समुद्र के पानी में डूब गया। अब जरा ध्यान करिए मुम्बई में हाजी अली की दरगाह पर जाने वाले मनुष्य निर्मित पुल का जो हाँलाँकि बहुत छोटा है लेकिन जब समुद्र में ज्वार होता है तो वो पानी के अंदर चला जाता है।


उपरोक्त विवरणों से जो बातें स्पष्ट होती हैं वो हैं कि:-

1.भारत और श्रीलंका के बीच के रामेश्वरम और श्रीलंका के उत्तरी इलाके वाले उस समुद्री क्षेत्र का जल बहुत छिछला है और उथली जमीन है।

2. उस क्षेत्र में सेड़ीमेन्टेशन से निर्मित शोल या रेतीले टीलेनुमा निर्माणों की एक पूरी श्रृंखला है जो उथले जल के भीतर दोनों भूभागों को जोड़ती सी है।

3. पौराणिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और ऐतिहासिक वर्णन बताते हैं कि किसी समय इन दोनों भूभागों को एक पुल जैसा निर्माण अथवा पुल ही जोड़ता था।

4.यह भी पता चलता है कि लगभग 15वीं शताब्दी तक इस सेतु के माध्यम से लोग इन दोनों भूभागों के बीच पैदल आवागमन करते थे।

5.कुछ जिक्र बताते हैं कि ईस्वी सन 1480 में एक भयानक समुद्री तूफान (Cyclone) के कारण समुद्र में हुयी उथलपुथल से यह रास्ता छिन्न-भिन्न-नष्ट हो गया या समुद्र में डूब गया।

कुछ कथाएं लंका जीतने के बाद विभीषण के अनुरोध पर उस सेतु को भगवान राम द्वारा तोड़ने का भी जिक्र करती हैं।


6.अल बरूनी ने अपनी पुस्तक में इसको "एडम्स ब्रिज" बताया है।


7.श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, श्रीरामचरितमानस तथा अन्य अनेकों पौराणिक, धार्मिक साहित्य में इसको  "राम सेतु", "नल सेतु" आदि नामों से वर्णित किया गया है।


इन तथ्यों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भारत के दक्षिणी और श्रीलंका के उत्तरी भाग को जोड़ने वाला एक स्थलीय निर्माण तो था। अब प्रश्न यह है कि उस समय में मौजूद यह निर्माण प्राकृतिक रूप से निर्मित था या मानव निर्मित था।इस विषय पर हम विचार करें तो यह स्पष्ट होगा कि उपरोक्त कथानकों के अनुसार जब रामचंद्र जी इस क्षेत्र में आये तो उनको मालूम हुआ कि यहाँ पर समुद्र का कोई इलाका ऐसा है जहाँ समुद्र का पानी प्राकृतिक रूप से बहुत छिछला है और उस जानकारी को वहाँ के स्थानीय प्रशासकों-शासकों से पता करने के जतन इन आख्यानों में अलग-अलग रूप से वर्णित हैं। 


अब बात यह है कि विश्व में अभी बहुत से प्रश्न और मुद्दे ऐसे हैं जो ऐतिहासिक इसलिए नहीं माने जाते क्योंकि उनके वो प्रमाण आज उपलब्ध नहीं हैं जो उन घटनाओं को मिथक से इतिहास के खाने में डाल दें लेकिन साथ ही साथ इनको नकारा भी नहीं जा सकता क्योंकि ये बातें सहस्त्राब्दियों से हमारे धर्म, संस्कृति और विश्वास का हिस्सा हैं और जैसे-जैसे पुरातात्विक खोजें होती जायेंगीं इन विषयों के रहस्यों से पर्दा भी हटता जाएगा। इस निर्माण के विषय में हम पूरे विश्वास से यह कह सकते हैं कि यह पुल या सेतु एक समय में मौजूद था। 


अभी तक उपलब्ध साहित्य और श्रुतियों को मानते हुए इसमें भी कोई शक नहीं लगता कि जब सीता जी का पता लगने के बाद लंका जीतने को श्रीरामचंद्र जी-लक्ष्मण जी अपने सैन्यबल के साथ समुद्र तट पर आए होंगे तो उस उथले-छिछले समुद्र को बाँधने का दुरूह कार्य करके उस सेतु का निर्माण करके ही वो सेना लंका पहुंची होगी।


अतुल चतुर्वेदी


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